Thursday, January 7, 2010

सुनो, मां पुकारती है......


एक
बार फिर गौवंश को बचाने की मुहिम। देशभर में विश्वमंगल गौ ग्राम यात्रा जारी है। और इसके जरिए करोड़ों जनमानस में गाय को संरक्षण देने और उसे राष्ट्रीय पशु घोषित करने की पहल नए सिरे से पैदा की जा रही है। आर्ट ऑव लिविंग, गायत्री परिवार, पतंजलि योग पीठ, जैन धर्म के श्वेतांबर, दिगम्बर और तेरापंथ जैसे पंथों के अलावा भारत के विभिन्न संतों, महंतों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के समर्थन और सहयोग से चल रही इस अभिनव यात्रा ने एक बार फिर से भारतीय संस्कृति पर विमर्श के लिए लोगों को प्रेरित किया है। यात्रा के पीछे का मकसद कुल मिलाकर गाय और गाय की संस्कृति की पुनस्र्थापना है।


ह।ल ही जब घर जाना हुआ, तो कई दिनों से अधूरी पड़ी मां की तमन्ना पूरी हुई। स्वाभाविक रूप से बड़ी खुशी की बात थी। मौका था गऊ दान का। दूसरे गांव गए, गाय जिस घर में थी वहीं रही, बस नकद भुगतान किया गया, गाय और उसकी साल भर की परवरिश के लिए, और वापस घर के मालिक को, जिसके नाम से संकल्प लिया गया, उसे उसके नुकीले सींगों से बंधी रस्सी के साथ सौंप दिया। मैं मोबाइल पर तस्वीरों को कैद कर रहा था। बच्चों के लिए तो यह परम्परा जैसे कोई खेल की तरह हो गई। कभी गाय के कान में कुछ बोला गया, तो कभी उसकी पूंछ पकड़कर मन वांछित फल मांगा गया। तो कभी उसे और उसके छोटे से बछड़े को तिलक करना और पांवों (खुर) की रज को माथे से लगाना। और कभी उसे चुनरी औढ़ाकर प्रणाम करना। जब संयुक्त परिवार था तो बरसों ही घर में गायों की सेवा-सत्कार को देखा। राठी नस्ल की लक्ष्मी भी उसमें एक थी, जिससे मेरा गहरा लगाव था। शैतानी के तौर पर एक रात के कुछ घंटे उसके ठाण में भी बिताए थे। आते-जाते कितनी ही बार उसे छूते और मस्तक पर लगाते। लेकिन जब सब अलग-अलग हुए, तो सबसे पहले गाज गायों पर ही गिरी, रहने की जगह तंग थी। लक्ष्मी को भी घर से विदा किया गया। और उस समय हमारी आंखों में आंसू थे, और लक्ष्मी के भी। लक्ष्मी के ठाण को कमरे की शक्ल दी गई, जिसमें मैंने कॉलेज तक की पढ़ाई पूरी की। आज भी स्मृतियों के किसी छोर पर लक्ष्मी का चेहरा यक-ब-यक दिख पड़ता है। गाय हमारी माता है, आगे कुछ नहीं आता है और बैल तुम्हारा बाप है, नम्बर देना पाप है जैसी बाल सुलभ उक्तियों के साथ गाय की महत्ता को हम बरसों से कितने ही संस्कारों और परम्पराओं के जरिए देखते-सुनते रहे हैं। कितने ही लोग प्रात: काल गाय के पैरों को छूकर दिन की शुरुआत करते हैं। चर्चा तब होती है जब कोई राजनेता ऐसा करता है। कुछ भी हो, गाय हमारे अन्तस में कहीं गहरे पैठी हुई है और वो अपने तमाम गुणों, सांस्कृतिक परिवेश और जीवन को आरोग्य बनाने की वजह से भी है। तीव्र स्मरण शक्ति के लिए गौ दुग्ध के बारे में तो सुनते आए हैं कि वह इतना तीव्र मेधा वाला होता है कि गाय का बछड़ा हजारों के झुण्ड में भी अपनी मां को पहचान लेता है। जबकि कुछ ही भैंसों के बीच उसका बच्चा उनकी लातें खाते हुए मिलता है। कभी राजा महाराजाओं, जमींदारों और नागरिकों के पास गौवंश संपन्नता का प्रतीक समझा जाता था। विवाह आदि मांगलिक कार्यों में गउएं दी जाती रही हैं। लेकिन आज कितने ही कत्लखानों में वो बेवक्त और बेरहमी से काटी जा रही है। लेकिन सच है कि अब कृष्ण की बांसुरी नहीं बजती। जिस पर हजारों गायें उनके गिर्द-गिर्द मंडरा जाती। तस्वीरों में कृष्ण को गौ रक्षक, गौ-सेवक और गौ-पालक के रूप में दिखाया गया। यानी जहां गाय होगी, वहां सूक्ष्म रूप में कृष्ण भी होंगे। पहली रोटी गाय और अंतिम कुत्ते के लिए रखी जाती रही है। लेकिन सामाजिक-आर्थिक कारणों से गाय पर भी मार पड़ी है। कभी अकाल तो कभी दूसरे कारणों से गौवंश की अनदेखी की जाती रही है।वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी नटवरलाल जोशी से जब इस बारे में बात हुई, तो कहने लगे कि जब समुद्र मंथन हुआ तो उससे प्राप्त चौदह रत्न में कामधेनु गाय भी एक थी। इसी की बेटी नंदिनी थी, जो मुनि वशिष्ठ के आश्रम में रही। और इसी की सेवा करके दिलीप ने रघु को प्राप्त किया। भारतीय संस्कृति यज्ञ मूलक है जिसमें यज्ञ संस्कार पंचगव्य अर्थात् गौघृत, गौमूत्र, गौधधि, गौदुग्ध और गौमय के बिना संभव नहीं है। इसी तरह नर्क से मुक्ति पाने और वैतरणी नदी को पार करने के लिए गऊ दान से बेहतर कोई मार्ग नहीं। क्योंकि मृत्यु के बाद पत्नी घर के द्वार तक, पुत्र शमशान यात्रा तक और शरीर चिता में जलने तक साथ देता है। मृत्यु के बाद केवल धर्म ही साथ चलता है। हिन्दू शास्त्रों में पंचबलि का विधान बताया गया है जिसमें क्रमश: गाय, कुत्ता, कौआ, चींटी, मनुष्य या देवता रूप में शामिल हैं। इसकें पीछे धारणा यह है कि हमसे अनजाने में हुए पापों का विमोचन इसके जरिए हो जाता है। आगे जोड़ते हैं कि गऊ ग्रास को श्रद्धा से जिस व्यक्ति के निमित्त दिया जाता है, उसे उसी रूप में पितर प्राप्त करते हैं। मनुष्य रूप में श्रेष्ठ भोजन, पशु रूप में श्रेष्ठ चारा और मांसाहारी जीव के रूप में तद्नुसार भोजन प्राप्त होता है। इसी कड़ी में वृषोत्सर्ग परम्परा भी है जिसमें गाय के बछड़े की सेवा और परवरिश उत्तम गौवंश के लिए की जाती है। मान्यता है कि वृषोत्सर्ग के जरिए ग्यारह पीढिय़ों का उद्धार सुनिश्चित हो जाता है। महाभारत काल से ठीक पहले तक दो गायों को दान देकर लड़की को विदा कर दिया जाता था। गायें दहेज में शामिल थीं और इसे आर्ष विवाह नाम दिया गया।इसी विमर्श में आयुर्वेद विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. बनवारीलाल गौड़ मानते हैं कि शरीर में ओज और बल के लिए गौघृत श्रेष्ठ साधन है तो गौमूत्र यकृत और रक्त विकार में। कैंसर, ह्रदय रोग और मधुमेह जैसी भयंकर बीमारियों में गौ-उत्पाद कारगर साबित हुए हैं। मिरगी के लिए पंचगव्य रामबाण दवा है। संजीवनी वटी गौमूत्र में ही तैयार होती है। वहीं बुखार, आंख-कान, बालों से जुड़े रोगों चर्म विकार में गौ-उत्पादों से तैयार साबुन, शैम्पू और सौंदर्य प्रसाधनों से बाजार तैयार हो रहा है। इस दिशा में निरन्तर शोध हो रहे हैं। लेकिन दु:खद है कि विदेशों में हमारे यहां के ज्ञान और खोजों को पेटेंट किया जा रहा है, तब भी हम नहीं चेत रहे हैं। आयुर्वेद की सैंकड़ों दवाइयों में गौ उत्पादों का प्रयोग हो रहा है और विदेशों में भी उनकी मांग बराबर बढ़ती जा रही है और वहां धूम मचाए हुए हैं। गाय के बिना आयुर्वेद अधूरा है।