Saturday, June 20, 2009

ग्लोबल लोगों का लोकल चेहरा


कथित ग्लोबल लोग अपने व्यावसायिक फायदों के इतर सोचते ही नहीं हैं, ऐसे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर परस्पर संबंध कैसे कायम रह सकते हैं? देशों की भौगोलिक रेखाएं लोगों के दिलों पर छाई हुई हैं


लगभग सौ साल पहले नस्लवाद के खिलाफ लड़ने वाले गांधी बाबा ने साठ साल पहले मरते वक्त सोचा भी नहीं होगा कि उनके देश के लोग ही इसके शिकार होंगे। लिहाजा लड़ाई जारी है। बस जगह बदल गयी है, यानी दक्षिण अफ्रीका की बजाए ऑस्ट्रेलिया। बकौल मशहूर शायर इकबाल-सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहां हमारा। मगर इन दिनों लगता है कि ये दुश्मनी कुछ ज्यादा ही हो गई है। ऑस्ट्रेलिया के बाद अब कनाडा और दूसरे देशों की बारी। वो भी पीछे क्यों रहे? जैसे इण्डियन होना एक सबसे बड़ी गाली हो गया हो। दुनियाभर में नस्ल को लेकर फçब्तयां कहीं न कहीं कसी जा रही हैं। लेकिन अब तिरंगे को चमकाने वाले और शाइनिंग इंडिया के तमगों के सच्चे हकदार भारतीयों के खिलाफ एक मुहिम के तौर पर यह सब हो रहा है। भारतीय पसोपेश में हैं कि अब तक तो यह पढ़ाई कर रहे छात्रों के साथ था, लेकिन अब अगर यह बरसों से बसे-बसाए लोगों के साथ शुरू हो गया तो क्या हो? क्योंकि अब तक तो वे वहां की नागरिकता लेकर मुयधारा में भी शामिल हो चुके हैं, वहां की संस्कृति और संस्कारों में रम चुके हैं। दरअसल कई क्षेत्रों में उन्होंने कामयाबी के झण्डे भी गाडे़ हैं, वो भी ऐसे कि हर कोई रश्क करे। यह ठीक वैसा-सा ही है कि गांव का बंसीलाल शहर के लोगों के बीच कामयाब बी एल बन जाए और लोगों की ईष्र्या का पात्र भी। आज समय बदल रहा है और इस बदलते वक्त में दुनिया में कहीं भी, किसी भी शासन व्यवस्था में, किसी को भी इस बात की इजाजत नहीं दी गई है कि वह किसी भी इंसान को उसे विशेष विशेषणों से संबोधित करे, कोई टीका-टिप्पणी करे या उसे हिकारत की नजर से देखे । एक सय समाज में रंग, जाति और नस्ल को लेकर किसी भी तरह के भेदभाव और हिंसा को स्वीकार नहीं किया जाता। लेकिन इसी सयता का आधुनिक संस्करण पढ़ाने वाले अधिकांश देशों के लोगों में जब-तब इस तरह की घटनाएं देखने को मिलती है। दुनिया के देशों की सबसे बड़ी पंचायत संयुक्त राष्ट्र भी नस्लवाद के किसी भी रूप को न केवल खारिज करता है वरन उसे लेकर कडे़ प्रावधान भी तय किए गए हैं। फिर भी यह कहीं न कहीं घट रहा है यानी कोई न कोई इस विकृत और संकीर्ण मानसिकता की वजह से अकारण अपमानित हो रहा है। नस्लवाद की जब भी बात चलती है तो हिटलर और नाजियों की चर्चा भी होती है, जिन्होंने लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया था। आपको फिजी का वाकया तो याद ही होगा, जब वहां के प्रधानमंत्री महेंद्र चौधरी को सत्ता से केवल इसलिए बेदखल किया गया कि वे भारतीय मूल के हैं। इतना ही नहीं, विधान तक हमेशा के लिए बदल दिया गया। जबकि इस तरह के लोगों के सैकड़ों उदाहरण भरे पडे़ हैं, जिन्होंने गैर मुल्कों की तरक्की में खासा योगदान दिया है और वहां के लोगों और सरकारों ने भी उन्हें पूरा समान दिया है। लेकिन अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश में मानवीय मूल्य, सद्भाव और सदाशयता पीछे छूटते जा रहे हैं। आज दुनिया में तनाव ज्यादा है आपसी रिश्तों में असुरक्षा का बीज अंकुरित हो चुका है और कमोबेश छोटी-सी भी चिंगारी बड़ी आगजनी में तब्दील होने की संभावना बढ़ गई है। बचपन में एक कहावत सुना करते थे कि थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली। इसका व्यापक अर्थ उस समय मालूम नहीं था। लेकिन अब अर्थ के साथ उसकी व्यापक व्याया भी समझ में आ रही है। विकसित देशों का दोहरा आचरण और चेहरा समय समय पर जाहिर होता रहता है, अब बे-पदाü हो रहा है। और ईमानदारी की बात तो ये भी है कि विश्वविद्यालय परिसर तो विश्व संस्कृति के प्रतिनिधि हैं। इन परिसरों पर भी अगर संकीर्ण मानसिकता का हमला हुआ तो ये शिक्षा के केंद्र अपनी मौलिकता, विश्वसनीयता और अपनी उद्देश्यपरक बुनियाद को ही तबाह कर देंगे। मानवाधिकारों के सबसे बड़े आका अमेरिका समेत हो रही अपमानित मानवता के मसले पर पूरी दुनिया की चुप्पी हैरत में डालने वाली है। कई दिनों से चल रही इन छींटाकसी और हमलों की घटनाओं के बाद भी आज तक किसी दूसरे देश ने इस पर कोई टिप्पणी करना भी मुनासिब नहीं समझा। जबकि अमरीका में आतंककारी हमला होने के तुरंत बाद ऑस्ट्रेलिया सहित पूरी दुनिया के देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने उक्त घटनाओं की तीव्र निंदा करते हुए अमेरिका को समर्थन देने की बात कही। अगर केवल भारतीयों की बात की जाए तो आज जर्मनी सहित बहुत से यूरोपीय राष्ट्र हैं, जहां इस तरह की आग पहुंच सकती है और जो लाखों लोगों की जिंदगी से सुख-चैन छीन सकती है। इतिहास गवाह है कि भारत में यहां कितने ही आक्रान्ता आए जिसमें यूनानी, शक-कुसाण, हूण, तुर्क-अफगान, तुर्क शामिल हैं। जहां तक अंग्रेजों का सवाल है तो वे व्यापारी का मुखौटा लगाकर आए थे, लेकिन बन गए शासक। पर यहां की संस्कृति ने किसी को भी दुत्कारा नहीं, बल्कि सबको यहीं पर अपने अंक में समेट लिया। भारत कभी आक्रांता नहीं रहा। कभी किसी पर हमला नहीं किया। और हजारों सालों पहले रचे गए वेदों में हमने सपूर्ण विश्व के कल्याण की कामना की। सच्चे अथोZ में हम वैश्विक रहे हैं। वैश्विक यानी समग्र विश्व का चिंतन और सोच को सहेजे हुए चलना। लेकिन पिछले कुछेक वषोZ से कॉर्पोरेट जगत के साथ ग्लोबल शब्द कुछ ज्यादा ही काम आ रहा है। आज इस वैश्वीकरण का सर्वाधिक फायदा पश्चिम और कुछ विकसित राष्ट्रों को हुआ है जो भारत को महज एक बढ़ते बाजार के तौर पर ही देखते हैं। यहां से अकूत दौलत पैदा करने वाली बहुराष्ट्रीय कपनियां अपने मूल देशों की सरकारों की ओर से हमारे ऊपर बराबर दबाव बनाती रहीं हैं। दूसरी ओर, यह ग्लोबलाइजेशन इकतरफा है, क्योंकि इसमें हमारे स्वदेशी हितों का गला घोंटा गया है। तीसरी दुनिया के प्रशिक्षित मानव संसाधन को बडे़ देशों ने हतोत्साहित ही किया है। जबकि वैश्विक व्यवस्था के मद्देनजर पूंजी के इतर भी कई दूसरे मोर्चे हैं जहां उत्तर दक्षिण के देश अपनी तकनीक, कुशल मानव संसाधन और श्रम को साझा कर बेहतर कल को बना सकते हैं। लेकिन यहां सबसे बड़ी दीवार है इन बडे़ देशों का अनुदार, अमानवीय और एकाकी नजरिया जिन्हें ये छद्म मुखौटों से ढक लेते हैं। वरना यूरोप में खेती के लिए बेपनाह सçब्सडी दी जा रही है और विकासशील देशों में विषम भौगोलिक परिस्थितियों, गरीबी, अपर्याप्त साधन और अन्य कारणों से लोग बेकार हो रहे हैं। अपने व्यावसायिक फायदों से इतर हमारे ग्लोबल भाइयों की सोच ही नहीं, इसीलिए उन्होंने अपनी जात और औकात दोनों दिखानी शुरू कर दी है। ऐसे माहौल में किस तरह से अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में सांस्कृतिक और दूसरे संबंध कायम रह सकते हैं। लगता है कि दुनिया के देशों के बीच जो भौगोलिक रेखा खींची गई है, वह न केवल जमीनी है, बल्कि लोगों के दिलों को भी वह कहीं गहरे तक उतर गई है। आज बात केवल ऑस्ट्रेलिया और कनाडा की नहीं है, बल्कि यह वैश्विक मुद्दा बन चुका है। यह किसी भी दूसरी समस्या से कमतर नहीं है। जरूरत है एक साझा मंच पर इस भयानक अमानवीय सोच से लड़ने और इससे पैदा हो रही दूसरी समस्याओं के निदान की। और एक सच और भी है, जो नश्तर की तरह चुभ रहा है। हमारे यहां अपने घर में क्या कुछ नहीं हो रहा है? अगर एक चक्कर देश का लगा लें तो हकीकत सामने आ जाएगी। एक तरफ देश के बाशिंदे जानवरों की तरह उत्तर पूर्व में गोलियों से भूने जा रहे हैं, तो दूसरी ओर कॉस्मोपोलिटन शहर मुंबई में रोज सरेराह पिट रहे हैं। क्या कसूर है उनका? कि वे किसी क्षेत्र विशेष में पैदा हुए हैं या उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से अपना अलग मुकाम बनाया है? संसाधनों पर हक की इस लड़ाई ने जहां देश प्रेम को जता दिया है, वहीं स्थानीय निहिताथोंü के चलते बडे़ लोगों का छोटापन भी सामने आ गया है।

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