Wednesday, June 2, 2010

जवां होते सपनों का मर जाना!



जातीय आधार पर राजनीति और सरकारी नौकरियों में मिल रहे आरक्षण का परिणाम है कि नाकाबिल लोगों की जमात सरकारी पदों पर काबिज हो रही है और उच्च राजनीतिक पायदानों पर अक्षम नेतृत्व की बढ़ोत्तरी हो रही है। तो अब सवाल यह है कि क्या इन नाकाबिलों और अक्षम लोगों के भरोसे सौ करोड़ से ज्यादा लोगों के इस देश की तकदीर छोड़ दी जायेगी?


जब भी शैक्षणिक परिसरों में जाता हूं तो देश की तैयार हो रही अगली पीढ़ी में कहीं न कहीं एक अनदेखा और अनजाना खौफ महसूस करता हूं। यह अनजाना खौफ और कुछ नहीं, देश की जवां होती नस्ल के अन्दर पैदा हो रही कुण्ठा और अवसाद का ही एक रूप है। यह दुर्भाग्य है कि एक तरफ हम तरक्की के पायदानों पर बढ़ते हुये दुनिया के साथ कदमताल कर रहे हैं और अग्रिम पंक्ति में अपने आप को खड़ा करने की जद्दोजहद में लगे हुये हैं, और दूसरी ओर जिनको हम देश का भविष्य करार दे रहे हैं, उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को आरक्षण के नासूर के चलते बरबाद करने पर तुले हुये हैं।
संविधान निर्माताओं ने जिस तात्कालिक प्रयोजन और भावना से आरक्षण का प्रावधान कुछ सीमित अवधि तक उन लोगों के लिए किया था जो वक्त की रफ्तार में काफी पिछड़ गये और राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल नहीं हो पाये। लेकिन हम और आप जानते हैं कि अब हालात बदल गये हैं और वे प्रावधान हमारी सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था के लिए एक चुनौती बन गये हंै।
यह दीगर बात है कि संविधान निर्माताओं ने बड़ी खूबसूरती से उन सभी प्रत्याशाओं का समावेश संविधान में किया है जो मानवीय गरिमा को बनाये रखने के लिए न केवल जरूरी है, बल्कि सहायक भी है। सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समानता से युक्त समाज की रचना किसी भी देश के विकास और उसमें कायम राजव्यवस्था की सफलता का पैमाना हो सकता है। लेकिन आजादी के साठ सालों के बाद भी देश में गैर बराबरी चरम पर है। इस गैर बराबरी को न केवल जातीय और क्षेत्रीय आधार पर देखा जा सकता है बल्कि लोगों के जहन में यह अन्दर तक उतर गया है और शायद यहीं वजह है कि देश में बिखराव, अलगाव और वैमनस्य तेज रफ्तार से बढ़ रहा है।
जातीय आधार पर राजनीति और सरकारी नौकरियों में मिल रहे आरक्षण का परिणाम है कि नाकाबिल लोगों की जमात सरकारी पदों पर काबिज हो रही है और उच्च राजनीतिक पायदानों पर अक्षम नेतृत्व की बढ़ोत्तरी हो रही है। तो अब सवाल यह है कि क्या इन नाकाबिलों और अक्षम लोगों के भरोसे सौ करोड़ से ज्यादा लोगों के इस देश की तकदीर छोड़ दी जायेगी? कदाचित यही हमारी नियती है कि इस व्यवस्था के खिलाफ चल रही लड़ाई में किसी की भी जीत हो, लेकिन हमारे युवा सपनों का कत्ल तय है। इसीलिये यही वो वक्त है जब इस गैर बराबरी को खत्म करने की दिशा में हम एक कारगर कदम बढ़ाये। सत्ता के गलियारों में इस व्यवस्था को लेकर यथास्थितिवाद की जो तस्वीर बन रही है उसमें लाजिम है कि वक्त रहते कुछ ठोस कार्यवाही की जाये, वरना चमकते हुये भारत की तस्वीर बदरंग हो जायेगी।

Wednesday, March 17, 2010

जन माध्यम जन पक्षधर्ता बनें - करमचंदाणी


जयपुर 14 मार्च, बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव के चलते जन माध्यम भी बच नहीं पाये हैं बल्कि जिन सरोकारों को लेकर उन्हें संजिदा होना चाहिए उसमें साफ तौर पर गिरावट आ रही है। उक्त विचार दूरदन केन्द, जयपुर के कार्यकारी निदे’ाक हरी करमचंदाणी सामाजिक जनजागृति को समर्पित स्वयंसेवी संगठन परिवर्तन संस्थान के तत्वावधान में वि’व उपभोक्ता दिवस पर श्री भटटारकजी की नसिया स्थित शान्तादेवी ताराचन्द बड़जात्या कांÝेस हाल में आयोजित जन स्वास्थ्य, जन माध्यम और उपभोक्ता संरक्षण विषयक~ जन चेतना संगोष्ठी में अपने अध्यक्षीय उद~बोधन में व्यक्त कर रहे थे।
उन्होंने कहा कि जन माध्यमों को जन पक्षधर्ता बनने की जरूरत है। आज जिस तरह से टेलीविजन चैनल गलाकाट प्रतिस्पर्धा में और अपनी टीआरपी को बढ़ाने के लिए मूल्यों के साथ समझौता कर रहे हैं उससे लगातार आम लोगों का मीडिया में वि’वास खत्म हो रहा है। उन्होंने ज्यादा मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि मीडिया को जिम्मेदार तरीके से जन समस्याओं और विकास के मुद~दों पर गम्भीरता बरतनी होगी। कमरचंदाणी ने कहा कि तमाम बाजार के दबावों के बावजूद भी दूरदर्’ान अपने सामाजिक सरोकारों और जनउपयोगी कार्यक्रमों से पीछे नहीं हटा।
संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में एम.आर. मोरारका जीडीसी रूरल रिसर्च फाउण्डे’ान के कार्यकारी निदे’ाक मुके’ा गुप्ता ने बताया कि हमनें पीढ़ी दर पीढ़ी जिस विरासत, रीतिरिवाज, संस्Ñति और ज्ञान को संजोकर रखा, वो अब बिखर रहा है। इसलिए ज्ञान के हस्तान्तरण के चैनल्स को पुर्नजीवित करना आव’यक है। गुप्ता ने खाद~य पदार्थों में बढ़ रही मिलावट को एक बड़ी चुनौती बताया और कहा कि पारम्परिक जन माध्यमों को लोक ’िाक्षण का प्रभावी माध्यम बनाया जा सकता है।
संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में जयपुर विद्युत वितरण निगम के सीएमडी आर.जी गुप्ता ने विस्तार से विद्युत सुधारों पर प्रका’ा डाला और कहा कि उपभोक्ताओं का दबाव ही कई बार बड़ी योजनाओं को बनाने और क्रियान्वित करने का जरिया बन जाता है। उन्होंने बढ़ते उपभोक्तावाद के दौर में अपनी जरूरतों को सीमित करने पर भी बल दिया।
संगोष्ठ में आका’ावाणी केन्दz, जयपुर के कार्यक्रम अधिकारी योगे’वर शर्मा ने कहा कि आदमी को गिनने की कुव्वत हमारे सिस्टम में नहीं है यानि मानवीय गरिमा को सबसे पहले स्थापित करने की जरूरत है। शर्मा ने इस बात पर दुख व्यक्त किया कि सरकारी माध्यमों का रवैया भी दूसरे वाणिज्यिक संस्थानों की तरह बढ़ रहा है।
भारतीय मानक ब्यूरो, जयपुर शाखा के निदे’ाक एन.के. गzोवर ने मानक निर्धारण प्रक्रिया के साथ ही हाWलमार्किंग के बारे में विस्तार से जानकारी दी। इससे पहले अखिल राजस्थान उपभोक्ता संगठन महासंघ के अध्यक्ष डाW. अनंत शर्मा ने राजस्थान में उपभोक्ता संरक्षण की स्थिति के बारे में चर्चा करते वक्त कहा कि उपभोक्ता कल्याण कोष, उपभोक्ता निदे’ाालय और उपभोक्ता क्लबों के गठन के बावजूद भी आम उपभोक्ता के साथ धोखाधड़ी का खेल बन्द नहीं हुआ है।
वरिष्ठ पत्रकार ओम सैनी ने जन माध्यमों को अधिक ईमानदार और पारदर्ी बनाने पर बल दिया। जगन्नाथ यूनिवर्सिटी के कुलपति प्रो. एम.के. भार्गव ने उपभोक्ता संरक्षण जैसे जन महत्त्व के विषय को पाठ~यक्रम में शामिल करने की आव’यकता बतलाई। संगोष्ठी का विषय प्रवर्तन डाW. संजय मिश्र ने किया। अतिथियों का सम्मान संस्थान के जयपुर चेप्टर के समन्वयक डाW. अंुल शर्मा ने किया। कार्यक्रम का संचालन योिता उपाध्याय ने किया।

Tuesday, March 2, 2010

वो फाग का राग...

चुनावी पाळे ने गांव में प्यार-मोहब्बत की लहलहाती खड़ी फसल को तबाह कर दिया। लोगों ने दोनों तरफ से पैसा और अंग्रेजी ली, तो एक जगह तो धोखा निकलना ही था। और वैसे चुनाव का दूसरा नाम धोखा ही तो है। धोखा प्यार में मिले या मिले चुनावों में, उसका गम गहरे तक उतरता है...


होली तो हर बार आती है, और टैम पर उसे आना ही था। मगर इस बार गांवों में वो उत्साह नहीं दिख रहा। चारों ओर सन्नाटा पसरा है। चौपाल खामोश है। चंग उदास है। बच्चे कटे-कटे से हैं। कहीं टोलियां नजर नहीं आ रही, जो कई दिनों पहले ही दिख जाती हैं। खेतों में उगी फसलों से उठती खुशबू तो है, मगर उससे पैदा होने वाली मस्ती न जाने कहां काफूर हो गई। क्या बात है भई, सब खैरीयत तो है? किसी के चेहरे पर चहक नहीं, फागुन की कहीं महक नहीं। रंगों के इस मौसम में सब बेरंग से। बुझे-बुझे से। लगता है चुनावी पाळे ने गांव में प्यार-मोहब्बत की खड़ी फसल को तबाह कर दिया। इसको यूं कहें कि एक तो पहले ही लोगों में आपसी प्रेम जो दिनों-दिन कम होता जा रहा है, और उसमें इन चुनावों ने आग में घी का काम किया है। मतलब चुनावों की वजह से लोगों में मेल-मिलाप और कम हुआ है। जो कुछ कहीं कसर भी रही, तो वो मंहगाई ने पूरी कर दी।
पहले प्रदेश, फिर देश और फिर हाल ही पंचायत और पालिका, लगातार चुनाव पर चुनाव। पहले उनकी खबर, जो हार गए। मत पूछो, हार क्या गए, वो तो जैसे जिंदगी हार गए। पिछली दो फसलों की कमाई का सारा पैसा उम्मेद ने इस उम्मीद में लगाया कि महानरेगा से उसकी वसूली हो जाएगी। पर पहले ही सुलट गए, तो सारी प्लानिंग धरी रह गई। बड़ के गट्टे के ऊपर सभी दो-चार लोग जुट रहे हैं। उम्मेद रुकता है और बोलता है- आंखों के सामने लोग गाढ़ी कमाई को जीम गए और डकार भी नहीं ली। सीधा साफ धोखा। कितनी मस्ती और शांति थी जिंदगी अच्छी-भली कट रही थी। पर ये उड़ता तीर ले लिया। अंटी का पैसा गया, मन का सुकून भी और गांव में फालतू का बैर और मोल ले लिया। खीज कर बोलता है कि अक्कल मारी गई थी। इसी तरह सुरताराम ने भी बारह लाख की होली खेल ली। कुछ तो जमा पूंजी थी, तो कुछ रिश्तेदारों से उधार ली थी इस मुगालते में कि जैसे जीतते ही लौटरी लग जाएगी। हा, हन्त...सुरता बताता है कि लोगों में नेम धेम कुछ नहीं बचा। पानी हाथ में ले लिया, लौटा लूण गाळ लिया, और तो और मंदिर पर चढ़कर सोगन-शपथ हो गई, फिर भी बेहया और खुदगर्ज लोगों ने दोनों तरफ से पैसा और अंग्रेजी ली। अरे भाई, ऐसा था तो एक जगह तो धोखा निकलना ही था। और वैसे चुनाव का दूसरा नाम धोखा ही तो है। धोखा प्यार में मिले या मिले चुनावों में, उसका गम गहरे तक उतरता है। यह कौन समझाए किसी को। खुद पांच चुनाव हार के बैठा हूं, उन बातों को दसेक साल हो गए, पर टीस आज तक बरकरार है। ताऊ जुगल ठीक कहता है कि गांव में वो अपणेस खतम होग्यो। लोग खड़्या-खड़्या पीपल निगलज्यां, तो कोई फर्क कोनी पड़ै।
पर हैरत की बात तो ये है कि जो जीता, वो भी खुश नहीं नजर आ रहा। उसका अलग ही राग है। खबर है कि नरेगा का करोड़ों का बजट सीधा जन प्रतिनिधियों की गिरफ्त में नहीं होगा। बल्कि इस पर भी सरकारी अंकुश होगा। अब जब सीधे कोई खरीद ही नहीं, तो कैसे होगा विकास। कोई जीता-कोई हारा, पर मारा गया मुफ्त में भाईचारा।
नंगली गांव के नत्थू का दुख भी लगे हाथ सुनते चलो, कहता है कि बुरा हो इस पंचायती-राज का, जो लोगों में दूरिया बढ़ाने के सिवाय कोई काम नहीं कर रहा। नत्थू गए सालों से गांव की सुगनी भाभी को हर होली में रंगों से सराबोर कर दिया करता था, साल भर में एक बार जैसे उसके पास लाईसेंस था उसे छूने का। बड़ा सिहर-सिहर जाता था नत्थू। पर लगता है कि अब तो उसके लिए यह गुजरे जमाने की बात हो जाएगी। हो भी क्यूं न, सुगनी सरपंच जो बन गई है। और बनते ही उसकी चाल ही बदल गई है। लोगों से घिर गई है वो। रातों-रात उसे कई सारी बातें बताई और सिखाई जा रही है। पहले जो उसकी खोज-खबर तक नहीं रखते थे, वे अब रातों-रात उसके हमदर्द बन गए। कुछ भी कहो, नत्थू की तकलीफ जायज है।
इसी तरह मंगला और महावीर की कभी एक दांत टूटा करती थी, बड़े घनिष्ठ दोस्त हुआ करते थे। राम-लक्ष्मण का सा नाता। पर अब इक-दूसरे को फूटी आंखों नहीं सुहाते। बात छोटी-सी थी कि दोनों ही मित्रों ने दो अलग-अलग गुटों का साथ दिया और रिश्तों में फांट पड़ गई। इसी तरह रूपसी मनकोरी पर मन ही मन फिदा था नागरमल। उसे लगा कि अब प्रधान बनते ही उसकी मुराद पूरी होने वाली है कि अब उसे कौन रोक सकता है। मनकोरी एक तो जात की...और ऊपर से कमजोर की लुगाई। कमजोर की लुगाई माने गांव की भोजाई। और इस पर परधानी की अकड़। होली पर रंगों की रगड़ से उसकी रड़क उतारने पर उतारू है नागरमल। पता नहीं कहां गई वो प्यार की बोली, कहां गई गलियों की टोली, वो चंग की थाप और गिंदड़ की ताल, वो फाग के तराने। अब दिलों में जलती है होली और सच पूछो, तो हमने होली की मस्ती खो ली।

Thursday, February 11, 2010

महंगाई में मर्ज प्रेम का!


पहले चीजें बहुत सस्ती मिला करती थी, मगर प्रेम तो तब भी अनमोल ही हुआ करता, मगर आजकल सबसे सस्तापन प्यार में ही दिख रहा है और महंगापन चीजों में
बुजुर्गवार कई बार चर्चा करते हैं बीते हुए जमाने की। उसमें सबसे खास जो विषय होता है, वो होता है सस्ता। सस्ते के जमाने की बातें कि कितने आने में कितने मन अनाज आ जाया करता, कितने रुपये में देसी घी, मामूली पैसों में घरभर की तरकारी और चंद रुपयों में चलने वाला घर खर्च, स्कूल फीस ऐसी कि उस पर यकीन ही न हो। सब तरफ सस्तेपन की मिसालें। इन तमाम चर्चाओं में कभी भी गलती से भी, प्यार-व्यार का जिक्र नहीं होता। जैसे कि यह बिलकुल तुच्छ और बेमतलब की बेकार बकवास हो।
बहरहाल प्रेम-दिवस की धूम सब तरफ मची है। क्या बाग-बगीचे, क्या थिएटर, और क्या लाइब्रेरी, और तो और आस्था के मंदिर देवालय भी बाकी नहीं बचे हैं, वहां पर भी गलबइयां डाले जी भरकर झूठ बोला जा रहा है, कोई चांद तारे तोड़ रहा है, तो कोई किसी की जुल्फों को सोने सी चमकती बता रहा है, तो कोई होठों को स्ट्राबेरी और गुलाब। दुनिया की कोई भी अच्छी चीज न बची होगी, हर किसी से महबूबा की हरेक अदा को जोड़ा जा रहा है। भई वाह, हर किस्म के जोड़े देखे, मगर उनमें इस तरह की लफ्फाजी या कहिए, प्यार की गुटरगूं लगभग एक जैसी ही है। पर इस प्रेम प्रलाप में, माफ कीजिए प्यार के इजहार में हर कोई तनाव में दिख रहा है। अब सवाल ये मौजूं है कि प्रेम में तनाव कैसा? देखा जाए तो ये एकदम विपरीत चीजें हैं। पहले मंदी का रोना था, अब थोड़े-बहुत हालात बदले भी, तो लगता है कि ये महंगाई अब पीछे पड़ गई। महंगाई में मर्ज प्रेम का, महंगाई में कर्ज प्रेम का और निभाना अब फर्ज प्रेम का। दिनों-दिन महंगाई आकाश पर टंगने को तुली है और प्रेमी हैं कि उनकी जान सांसत में आई हुई है। कहां से और कैसे खरीदे महंगे-महंगे उपहार। तनख्वाह तो पहले ही बारह बजाए हुए है, ऊपर से ये प्यार। अब कर लिया, तो कर लिया या समझो कि हो गया। पर अब लगता है कि गुनाह हो गया। गुनाह भी ऐसा, जिसकी माफी नहीं। तो फिर ठीक है जब सिर ही ओखली में दे दिया है, तो फिर मूसल से क्या डरना?
जेब में रखे मोबाइल पर रिंगटोन बजी है, गाना चलता है- पैसा-पैसा करती है और पैसे पे क्यूं मरती है। पैसे पर मरने वाली अदा कैसी होती है, उसका तो हमें नहीं पता। हां, जिस बेवफा सनम पर हम मरते हैं, उसमें किसी तरह का दिखावा नहीं। दिल से प्यार करते हैं। तो क्या उसका जुलूस निकालना जरूरी है। अब देखो, जुल्मो-सितम की हद तो ये है कि जिस स्वप्न सुंदरी से आंखे चार हुई, उसने कहा कि वो अपनी पंद्रह-बीस फ्रेंड्स को वेलेनटाइन-डे के मौके पर एक पार्टी देना चाहती है और मुझसे सभी को इंट्रोड्यूस भी करवा देगी। मैंने कहा कि इंट्रोड्यूस तो ठीक है, मगर इस पार्टी की जरूरत क्या है? क्योंकि केवल एक पार्टी की वजह से सारा बजट बिगड़ जाएगा और फिर पार्टी करनी ही है, तो इतने झमेला किस लिए? हम दो क्या काफी नहीं। लेकिन मैडम है कि टस से मस नहीं। मालूम पड़ा कि फ्रेंड्स को पहले से ही इनवाइट किया जा चुका है और वैन्यू तक तय कर लिया गया। तो फिर कर लो पार्टी भी। मुझे बताने या बुलाने की जरूरत क्यों आ पड़ी। मोहतरमा ने बड़ी मासूमियत से कहा कि ये मेरे लिए एक सरप्राइज पार्टी है। वैसे सभी अपने अपने प्रेमी के साथ बाहर कहीं न कहीं जा रहे हैं, ये तो मेरे कहने पर रुक गए हैं। मैंने पूछा कि वैन्यू कहां रखा तो बताया गया कि शहर का एक नामचीन फाइव स्टार होटल। मुझे किसी फिल्म के कोर्ट का एक दृश्य याद हो आया, जिसमें जज मुजरिम की सजा मुकर्रर कहता है कि टू हैंग अंटिल डैथ। अब अगर मैं पीछे हटूं तो फिर कई दूसरे लोग भी हैं, जिन पर मोहतरमा दांव खेल सकती हैं और फिर अब तक काफी इन्वेस्ट भी हो चुका है मेरी तरफ से। तो सोच रहा हूं कि कुछ और सही।
सच पूछो तो किसी भी भले आदमी के लिए तो ये प्यार-व्यार सब काम की चीज नहीं। मेरे साथी राममोहन को लीजिए, नई-नई सगाई हुई है, मतलब सीधे दिल का कनेक्शन। एनओसी के लिए चक्कर नहीं लगाने पड़े। मगर शादी का कुछ अता-पता नहीं। और शादी और सगाई के बीच की दूरी इस लिहाज से खतरनाक हो गई है कि मैडम के लिए नित-नए गिफ्ट का इंतजाम करो। इस जान की आफत महंगाई में प्यार का पंगा तो ले लिया, मगर ये सिलसिला जितना लंबा खिंच रहा है, उतना ही दर्दनाक बनता जा रहा है। वाकई, प्रेम में अब कोई भावनाएं और एक-दूसरे के लिए त्याग जैसी बातें काफूर हो गई हैं। प्रेम एटीएम हो गया है कि बस तुरंत निकालो और तुरंत खर्चो। सब्र नहीं, और कल की किसे चिंता। खाए जा रहा है प्यार का सस्तापन और चीजों का महंगापन और खोता जा रहा है अपनापन।

Saturday, February 6, 2010

असुरक्षा के तंत्र में जीता गण



राजनीतिक सम्प्रभुता, आर्थिक स्वायत्तता और सांस्कृतिक अस्मिता के साथ हर इनसान के लिए सुरक्षित और गरिमामय जीवन सुनिश्चित करने की चुनौती से राष्ट्र रू ब रू है।


राजनीतिक दलों के चरित्र और उनकी कार्यशैली को देखते हुए लोग उसे दल-दल तक की संज्ञा दे देते हैं। पर पहली शर्त के रूप में लोकतंत्र के लिए राजनीतिक दल ठीक उसी प्रकार होते हैं, जिस तरह शरीर में दौड़ता लहू। दल जनमत तैयार करने के साथलोक कल्याण के लिए नीति-निमार्ण के लिए सरकार के तंत्र को प्रेरित भी करते हैं और दबाव भी बनाते हैं। लेकिन पढ़ी-लिखी और जागरुक जनता इन दलों की सदस्यता से परहेज ही करती है। जो सदस्य बनते भी हैं तो वे सभी इसके लाभ-हानि का गणित देखकर ही। सभी दल घोषित रूप में अपना सदस्यता अभियान चलाते हैं लेकिन इस तरह के अभियानों को देखते लगता है कि जितने लोगों को रिकॉर्ड में सदस्य बतौर दिखाया जाता है, उनकी भूमिका व्यावहारिक रूप में नगण्य ही रहती है। लाखों की तादाद में आंकडों में दर्ज ये सदस्य केवल संख्या बल दर्शाने और कई बार तो महज औपचारिकता पूरी करने के लिए काम में आते हैं। हाल ही एक ब्रोकिंग हाउस में कार्यरत मेरे मित्र ने किसी राजनीतिक दल का प्राथमिक सदस्य बनने की इच्छा जाहिर की। मुझे कुछ हैरत हुई। मेरे चेहरे के भावों को पढ़कर उसने कहा कि जिस दल की सदस्यता मैं लेना चाहता हूं, वहां से उसके हर सदस्य को किसी मुसीबत या बुरे वक्त में सहायता मिलेगी। किसी अनहोनी के वक्त, तुरंत निकटवर्ती थाने में आपके पक्ष में पार्टी दफ्तर से फोन जाएगा। यानी अब पार्टी दफ्तर की हैल्पलाइन नम्बरों के जरिए लोगों की तकलीफों का निस्तारण। बहुत अच्छी बात है, अगर ऐसा हो पाता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू बहुत खतरनाक भी है। कोई भी राजनीतिक दल लोगों में उनकी सुरक्षा के मुद्दे के नाम पर सदस्यता करता है, तो यह चिंता का विषय है। पिछली कुछ आतंकी घटनाओं को छोड़ भी दें, तो भी रोजमर्रा की भागदौड़ की जिंदगी में व्यक्ति की सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण विषय के रूप में उभर कर आया है। हो सकता है कि जिस तरह शिक्षा के लिए सरकार की ओर से दो प्रतिशत अधिभार लगाया गया है, उसी तरह आने वाले समय में सुरक्षा अधिभार भी वसूला जाए। खैर, बात सुरक्षा की है, जिसके लिए राज्य प्रतिबद्ध हैं, लेकिन राजनीतिक हित साधने के लिए हो रहे इस तरह के सदस्यता अभियान बेमानी भी हैं और अलोकतांत्रिक भी।




संक्रमणकाल से गुजरता गणतंत्र धीरे-धीरे परिपक्व हो रहा है। लोगों में राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षणिक जाग्रति का दौर जारी है। दलों की तरह ही सत्ता के केंद्रों में नेतृत्व परिवर्तन चल रहा है। जनता साफ-सुथरी छवि के लोगों को आगे ला रही है। और हर मोर्चे पर अपनी भागीदारी निभा रही है। पर अब भी एक बड़ी संख्या में लोग बुनियादी आवश्यकताओं से भी महरूम हैं। कितने ही लोग राष्ट्र की मुख्यधारा में नहीं आ पाए हैं। साथ ही इण्डिया और भारत के बीच की खाई को पाटने की भी प्रबल जरूरत है। यानी सामाजिक विषमता और गैर बराबरी को हर स्तर पर खत्म करने की दरकार है।
प्रोफेसर सतीश शास्त्री
जाने-माने संविधानविद्

Friday, February 5, 2010

भ्रष्टाचार के भंवर में फंसा विकास का चक्का


शासन में शुचिता महज एक नारा नहीं होना चाहिए। वह अमल में आए और दिखे भी। तभी हम प्रदेश में खुशियाली ला सकते हैं।

हाल ही नई दिल्ली में आठवें अप्रवासी भारतीय सम्मेलन का आयोजन हुआ। सम्मेलन में भाग ले रहे एक अप्रवासी प्रतिनिधि की टिप्पणी ने खासी सुर्खियां बंटोरी, जिसने राजस्थान के प्रशासन और उनके सलूक को लेकर कई सवाल खड़े कर दिए। पिछले कुछ बरसों से दूर देशों में रह रहे भारतवंशियों को अपनी जड़ों से जोडऩे का जो जतन चल रहा था, उसमें इस तरह के भ्रष्टाचार के आरोप अवरोध ही पैदा करेंगे। देश के दो-तीन राज्यों को छोड़ दें, तो निवेश को लेकर अप्रवासियों के उत्साह में किसी तरह का इजाफा होने का तो मतलब ही नहीं। यहां बात केवल राजस्थान के कर्मवीरों की, जो दुनिया के कौने-कौने में ऐसे मुकाम पर पहुंचे, जहां से उनसे उम्मीदें की जा रही हैं कि वे विकास से महरूम इस धरती को अपने स्नेह संबल से सरसब्ज करदें। और यह वाजिब भी है। इसी बहाने इक घटना याद हो आई। मेरे कस्बे के नामी-गिरामी एक व्यक्ति ने मुंबई से नगरपालिका के तत्कालीन चेयरमैन को फोन कर अधीनस्थ अदालत और पशु चिकित्सालय, जो दोनों एक ही परिसर में साथ चलते हैं, के पास पानी और कीचड़ से निजात पाने के लिए एक पार्क विकसित करने की इच्छा प्रकट की। और इसके लिए पूरी धनराशि वो स्वयं वहन करना चाहते थे। लेकिन उनकी एक ही शर्त थी कि पैसा कितना भी लगे, उनके प्रतिनिधि की देखरेख में ही खर्च होगा। जबकि चेयरमैन पैसा अपने पास लेना चाहता था। मंशा जाहिर थी। नतीजतन आज भी उस परिसर के बाहर का मंजर नहीं बदला। ये केवल एक छोटी-सी मिसाल है। हमारे विकास की गाड़ी महज इसीलिए रुकी हुई है। पियन से लेकर प्रिंसीपल सेक्रेटरी और बड़े हाकिमों तक पूरी व्यवस्था में व्याप रहे लोभ के चरित्र को खत्म करने की दरकार है, ताकि भ्रष्टाचार के भंवर में फंसे विकास के चक्के को निकालकर उसे गति दी जा सके।

Thursday, January 7, 2010

सुनो, मां पुकारती है......


एक
बार फिर गौवंश को बचाने की मुहिम। देशभर में विश्वमंगल गौ ग्राम यात्रा जारी है। और इसके जरिए करोड़ों जनमानस में गाय को संरक्षण देने और उसे राष्ट्रीय पशु घोषित करने की पहल नए सिरे से पैदा की जा रही है। आर्ट ऑव लिविंग, गायत्री परिवार, पतंजलि योग पीठ, जैन धर्म के श्वेतांबर, दिगम्बर और तेरापंथ जैसे पंथों के अलावा भारत के विभिन्न संतों, महंतों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के समर्थन और सहयोग से चल रही इस अभिनव यात्रा ने एक बार फिर से भारतीय संस्कृति पर विमर्श के लिए लोगों को प्रेरित किया है। यात्रा के पीछे का मकसद कुल मिलाकर गाय और गाय की संस्कृति की पुनस्र्थापना है।


ह।ल ही जब घर जाना हुआ, तो कई दिनों से अधूरी पड़ी मां की तमन्ना पूरी हुई। स्वाभाविक रूप से बड़ी खुशी की बात थी। मौका था गऊ दान का। दूसरे गांव गए, गाय जिस घर में थी वहीं रही, बस नकद भुगतान किया गया, गाय और उसकी साल भर की परवरिश के लिए, और वापस घर के मालिक को, जिसके नाम से संकल्प लिया गया, उसे उसके नुकीले सींगों से बंधी रस्सी के साथ सौंप दिया। मैं मोबाइल पर तस्वीरों को कैद कर रहा था। बच्चों के लिए तो यह परम्परा जैसे कोई खेल की तरह हो गई। कभी गाय के कान में कुछ बोला गया, तो कभी उसकी पूंछ पकड़कर मन वांछित फल मांगा गया। तो कभी उसे और उसके छोटे से बछड़े को तिलक करना और पांवों (खुर) की रज को माथे से लगाना। और कभी उसे चुनरी औढ़ाकर प्रणाम करना। जब संयुक्त परिवार था तो बरसों ही घर में गायों की सेवा-सत्कार को देखा। राठी नस्ल की लक्ष्मी भी उसमें एक थी, जिससे मेरा गहरा लगाव था। शैतानी के तौर पर एक रात के कुछ घंटे उसके ठाण में भी बिताए थे। आते-जाते कितनी ही बार उसे छूते और मस्तक पर लगाते। लेकिन जब सब अलग-अलग हुए, तो सबसे पहले गाज गायों पर ही गिरी, रहने की जगह तंग थी। लक्ष्मी को भी घर से विदा किया गया। और उस समय हमारी आंखों में आंसू थे, और लक्ष्मी के भी। लक्ष्मी के ठाण को कमरे की शक्ल दी गई, जिसमें मैंने कॉलेज तक की पढ़ाई पूरी की। आज भी स्मृतियों के किसी छोर पर लक्ष्मी का चेहरा यक-ब-यक दिख पड़ता है। गाय हमारी माता है, आगे कुछ नहीं आता है और बैल तुम्हारा बाप है, नम्बर देना पाप है जैसी बाल सुलभ उक्तियों के साथ गाय की महत्ता को हम बरसों से कितने ही संस्कारों और परम्पराओं के जरिए देखते-सुनते रहे हैं। कितने ही लोग प्रात: काल गाय के पैरों को छूकर दिन की शुरुआत करते हैं। चर्चा तब होती है जब कोई राजनेता ऐसा करता है। कुछ भी हो, गाय हमारे अन्तस में कहीं गहरे पैठी हुई है और वो अपने तमाम गुणों, सांस्कृतिक परिवेश और जीवन को आरोग्य बनाने की वजह से भी है। तीव्र स्मरण शक्ति के लिए गौ दुग्ध के बारे में तो सुनते आए हैं कि वह इतना तीव्र मेधा वाला होता है कि गाय का बछड़ा हजारों के झुण्ड में भी अपनी मां को पहचान लेता है। जबकि कुछ ही भैंसों के बीच उसका बच्चा उनकी लातें खाते हुए मिलता है। कभी राजा महाराजाओं, जमींदारों और नागरिकों के पास गौवंश संपन्नता का प्रतीक समझा जाता था। विवाह आदि मांगलिक कार्यों में गउएं दी जाती रही हैं। लेकिन आज कितने ही कत्लखानों में वो बेवक्त और बेरहमी से काटी जा रही है। लेकिन सच है कि अब कृष्ण की बांसुरी नहीं बजती। जिस पर हजारों गायें उनके गिर्द-गिर्द मंडरा जाती। तस्वीरों में कृष्ण को गौ रक्षक, गौ-सेवक और गौ-पालक के रूप में दिखाया गया। यानी जहां गाय होगी, वहां सूक्ष्म रूप में कृष्ण भी होंगे। पहली रोटी गाय और अंतिम कुत्ते के लिए रखी जाती रही है। लेकिन सामाजिक-आर्थिक कारणों से गाय पर भी मार पड़ी है। कभी अकाल तो कभी दूसरे कारणों से गौवंश की अनदेखी की जाती रही है।वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी नटवरलाल जोशी से जब इस बारे में बात हुई, तो कहने लगे कि जब समुद्र मंथन हुआ तो उससे प्राप्त चौदह रत्न में कामधेनु गाय भी एक थी। इसी की बेटी नंदिनी थी, जो मुनि वशिष्ठ के आश्रम में रही। और इसी की सेवा करके दिलीप ने रघु को प्राप्त किया। भारतीय संस्कृति यज्ञ मूलक है जिसमें यज्ञ संस्कार पंचगव्य अर्थात् गौघृत, गौमूत्र, गौधधि, गौदुग्ध और गौमय के बिना संभव नहीं है। इसी तरह नर्क से मुक्ति पाने और वैतरणी नदी को पार करने के लिए गऊ दान से बेहतर कोई मार्ग नहीं। क्योंकि मृत्यु के बाद पत्नी घर के द्वार तक, पुत्र शमशान यात्रा तक और शरीर चिता में जलने तक साथ देता है। मृत्यु के बाद केवल धर्म ही साथ चलता है। हिन्दू शास्त्रों में पंचबलि का विधान बताया गया है जिसमें क्रमश: गाय, कुत्ता, कौआ, चींटी, मनुष्य या देवता रूप में शामिल हैं। इसकें पीछे धारणा यह है कि हमसे अनजाने में हुए पापों का विमोचन इसके जरिए हो जाता है। आगे जोड़ते हैं कि गऊ ग्रास को श्रद्धा से जिस व्यक्ति के निमित्त दिया जाता है, उसे उसी रूप में पितर प्राप्त करते हैं। मनुष्य रूप में श्रेष्ठ भोजन, पशु रूप में श्रेष्ठ चारा और मांसाहारी जीव के रूप में तद्नुसार भोजन प्राप्त होता है। इसी कड़ी में वृषोत्सर्ग परम्परा भी है जिसमें गाय के बछड़े की सेवा और परवरिश उत्तम गौवंश के लिए की जाती है। मान्यता है कि वृषोत्सर्ग के जरिए ग्यारह पीढिय़ों का उद्धार सुनिश्चित हो जाता है। महाभारत काल से ठीक पहले तक दो गायों को दान देकर लड़की को विदा कर दिया जाता था। गायें दहेज में शामिल थीं और इसे आर्ष विवाह नाम दिया गया।इसी विमर्श में आयुर्वेद विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. बनवारीलाल गौड़ मानते हैं कि शरीर में ओज और बल के लिए गौघृत श्रेष्ठ साधन है तो गौमूत्र यकृत और रक्त विकार में। कैंसर, ह्रदय रोग और मधुमेह जैसी भयंकर बीमारियों में गौ-उत्पाद कारगर साबित हुए हैं। मिरगी के लिए पंचगव्य रामबाण दवा है। संजीवनी वटी गौमूत्र में ही तैयार होती है। वहीं बुखार, आंख-कान, बालों से जुड़े रोगों चर्म विकार में गौ-उत्पादों से तैयार साबुन, शैम्पू और सौंदर्य प्रसाधनों से बाजार तैयार हो रहा है। इस दिशा में निरन्तर शोध हो रहे हैं। लेकिन दु:खद है कि विदेशों में हमारे यहां के ज्ञान और खोजों को पेटेंट किया जा रहा है, तब भी हम नहीं चेत रहे हैं। आयुर्वेद की सैंकड़ों दवाइयों में गौ उत्पादों का प्रयोग हो रहा है और विदेशों में भी उनकी मांग बराबर बढ़ती जा रही है और वहां धूम मचाए हुए हैं। गाय के बिना आयुर्वेद अधूरा है।