Monday, November 16, 2009

कौन बड़ा है! राष्ट्र या महाराष्ट्र?

महाराष्ट्र विधानसभा के भीतर घटी घटना से हर राष्ट्रीय सोच का व्यक्ति आहत है। हो भी क्यों नहीं। आखिर देश की स्वतंत्रता के भार को वहन करने वाली राष्ट्र भाषा हिन्दी के साथ इस तरह का बर्ताव? चिंतनीय और निंदनीय भी। एकबारगी लगा जैसे आजमी को तमाचा मारने वाले कुछ विदेशी भाडे़ के लोग थे, जिन्हें भारत और भारतीयता की कोई परवाह नहीं। तुच्छ स्वार्थों में फंसे कुछ भटके लोगों की घृणित कारगुजारी से यादों में दर्ज इन मराठी माणुसों से एक मुलाकात ताजा हो गई। मुंबई के वाशी रेलवे स्टेशन के नजदीक शिव सेना के मुखपत्र सामना के दफ्तर का एक दृश्य। मौका था सामना में आधुनिक मशीनों की लांचिंग। संजय निरुपम उस समय संपादक हुआ करते। कार्यक्रम में चुनिंदा व्यक्तियों ही प्रवेश। उसी दिन यानी 23 जनवरी को बाल ठाकरे का जन्मदिन भी था ७५वां। मैं अपने एक मित्र के साथ मुंबई प्रवास पर था। और मित्र ने बालासाहब से मुलाकात की इच्छा प्रकट की। थोड़ा आकर्षण मेरे अंदर भी था। मैंने स्वर्गीय विजय लोके (सेना के नेता और मित्र) और माहिम के एमएलए सुरेश गंभीर से बातचीत कर कार्यक्रम में घुसने का रास्ता बनाया। कार्यक्रम में तुरई नाद के साथ ही बालासाहब का प्रवेश और शिवाजी महाराज की जय-जयकार से आसमान गूंज उठा। उस वक्त तक शिव सेना में टूटन नहीं आई थी। मंच पर नारायण राणे के साथ मनोहर जोशी, राज और उद्धव भी थे। बालासाहब मराठी में बोले और उन्होंने हंसाया भी बहुत। बाद में उन्हें बधाई देने जब हम मंच पर पहुंचे, तो मनोहर जोशी ने मेरा परिचय कराया हिन्दी में। स्वयं राज और उद्धव ने मुझसे हिन्दी में ही बात की। बालासाहब ने भी बिना किसी कठिनाई के हिन्दी में संवाद किया। बाद में खाना खाने के दौरान भी सुभाष देसाई और दूसरे लोगों से बात हुई। कहीं भी नहीं लगा कि ये लोग इतने संकीर्ण भी हो सकते हैं, लेकिन सियासत की खातिर हमारे यहां क्या -क्या नहीं होता? सवाल ये है कि क्या राष्ट्र से बड़ा है महाराष्ट्र? क्या कुछ लोगों को उनकी हदों से बाहर जाती निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने के लिए खुली छूट दी जाती रहेगी? क्या भारत का बाशिंदा अपने ही देश की सरहदों में अपमानित होगा? और सत्ता में बैठे बेशर्म लोग कब तक अपने राजनीतिक हित साधने के लिए मूकदर्शक बने रहेंगे? देश की आत्मा पर चोट करते इन सांस्कृतिक तालिबानियों को रोकना होगा। क्योंकि देश की स्वाधीनता, एकता और अखण्डता के लिए जिन हुतात्माओं ने सर्वस्व दे दिया, उनके उस बलिदान को कलुषित करने का हक किसी भी माणुस को नहीं दिया जाएगा। हाल ही आया सचिन तेंदुलकर का बयान राजटाइप लोगों को बड़ा संदेश देता है कि उन्हें महाराष्ट्रीयन होने का गर्व है, लेकिन मुंबई भारत का एक हिस्सा है, और वे खेलते हैं देश के लिए। यकीनन यही जज्बा हर नागरिक में होना चाहिए। तभी हम बाहरी शçक्तयों की चुनौतियों का मुकाबला कर सकते हैं। अपनी निजताओं को स्वीकारें और उन्हें ताकत बनाते हुए वृहत्तर राष्ट्रहित में समाहित करें। वैसे भी राष्ट्रीय चुनौती और प्रतिष्ठा की कोई भाषा नहीं होती है, भावना होती है और जज्बा होता है। यानी आखिरकार, क्या जयहिंद कहने में जय महाराष्ट्र या जय राजस्थान शामिल नहीं होता?

Wednesday, August 19, 2009

ये सच है या कि कयामत...

ये हैरत की बात है कि टीवी चैनल आपसी गला-काट प्रतिस्पर्धा के चलते अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए जिस तरह के कार्यक्रम गढ रहे हैं, वे हंसते-खेलते लोगों के संसार को उजाड़ रहे हैं।
आजकल बुद्दू बक्से ने कोहराम मचा रखा है, क्योंकि लोगों के जेहन में उठा तूफान शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा। स्टार टीवी पर सच का सामना रियलिटी शो में पूछे गए कुछ सवाल भारतीय जनमानस में, खासतौर पर मध्यम और निन मध्यम वर्ग में, परेशानी का सबब बन गए हैं। वे सवाल नश्तर की तरह दापत्य में चुभ रहे हैं और पति-पत्नी के सुखी जीवन में कडवाहट घोल रहे हैं। कहीं पति तो कहीं पत्नी, दोनों ही अपने जीवन साथी को शक की नजर से देख रहे हैं। इसी बहाने कम से कम हमारे समाज की परत दर परत चढ़ती जा रही उस अप-संस्कृति का चीरहरण तो हो रहा है जिस के नाम पर हमने इक झूठा आवरण और आभा-मण्डल बना रखा है और आत्म-मुग्धता की पराकाष्ठा पर आ पहुंचे हैं। लेकिन देखने वाली बात यह है इस कीचड़ को हम क्यों इतना ऊंचा उछाल रहे हैं। आखिर वह गिरना तो नीचे ही है। कुछ ही असेü पहले मैं दिल्ली प्रवास पर था और इंडिया टीवी पर एक कार्यक्रम देख रहा था तभी रजत शर्मा की अपील भी सुनने को मिली जिसमें वे कहते हैं कि लोगों की निजी जिंदगी में तांक-झांक करना या कास्टिंग काउच जैसी चीजों को लेकर ही प्रसारण करना उनका काम नहीं है। और वे जिमेदार चैनल की हैसियत से ही खबरों का चयन और प्रसारण करेंगे। इशारा साफ था अमन वर्मा, शçक्त कपूर और इसी तरह के कुछ दूसरे नामचीन लोगों की कारगुजारियों पर से परदा उठाना वगैरह-वगैरह। चाहे सनसनीखेज खबरों के लिए एकबारगी टीवी की टीआरपी क्यूं न बढती हो, पर ये तय है कि उसकी साख लगातार गिरेगी जरूर। लेकिन यहां बात लोगों की जिंदगी के अंदरूनी और स्याह सच को सामने लाने की बात हो रही है।
मेरे एक मित्र के ब्लॉग पर एक पंçक्त को पढ़कर मेरे पसीने आ गए, जिसमें लिखा था- मैं कसम खाकर कहता हूं कि इस ब्लॉग पर जो लिखूंगा, सच लिखूंगा। सच के सिवा कुछ भी नहीं। मैंने उसे ईमेल तुरत मारी और जिसमें कहा- पापे, तुझे हो क्या गया है.. बौरा गया है तू। क्या सच बोलना चाहता है, बता? और तेरे इस तरह से सच बोलने से न समाज का कुछ भला होने वाला है और न तेरा। क्यों तू अपनी गिरस्थी को आग लगाने पर तुला है। तुझे नहीं मालूम कि ये टीवी पर चमकते हुए चेहरे हमारी पारिवारिक नींव को ही हिला देंगे। और इनका कुछ नहीं बिगडना। ये रईसजादे पैसों के लिए कुछ भी करेंगे। और कल तक चंद पैसों के लिए काम करने वाले कहां के सेलिब्रिटी हो गए। ये सब इलेक्ट्रोनिक माडिया की पैदा की हुई नाजायज औलादें हैं जो रातों-रात करोड़ों में खेलना चाहते हैं और वह भी किसी कीमत पर क्यों न हो। फिल्मी माहौल में पल रही ये पीढ़ी पश्चिम के सारे संस्कारों से युक्त और विशुध्द भारतीयता से मुक्त है। इन्हीं होनहारों की बदौलत हाल ही में एक सवेü में यह पाया गया कि विवाहेत्तर और विवाह से पूर्व किसी भी तरह के शारीरिक संबंधों का आंकडा 42 फीसदी तक पहुंच गया है। अब ये अपने आप मेें विवाद का विषय हो सकता है कि सवेü एजेन्सी ने शामिल किए गए लोगों का आधार क्या रखा।
इसी से जुड़े हालिया दो बडे़ काण्ड सुर्खियों में छाए। सच का सामना कार्यक्रम की तर्ज पर ही दो दपत्तियों ने इसी तरह की निरी मूखüता को अंजाम दिया और देखते-देखते दो घरों की खुशियां राख हो गई। ऐसे ही खेल-खेल में पति-पत्नी में सवालों का सिलसिला शुरू हुआ तो सवाल निकला कि शादी से पहले पत्नी के किसी मदü से शारीरिक सबंध थे या नहीं। और जोश-जोश में पत्नी ने जब बताया कि उसके पहले भी किसी के साथ अंतरंग रिश्ते रहे हैं तो पति अवाक रह गया और सद्मे में आ गया। इसी सद्में में उसने खुदकुशी करली। एक और मामले में इसी तरह की बात जब पति पत्नी में हो रही थी तो पत्नी विजेता के अंदाज में बोली कि उनके दो बेटों में एक उनका नहीं है यानी गैर मदü का है। इतना सुनना भर था कि पति ने धारधार ब्लेड से पत्नी को हलाक कर दिया। हालांकि इन दोनों उदाहरणों से हम यह नहीं स्थापित करना चाहते कि महिलाएं ज्यादा वफादार होती हैं या पुरुष, बल्कि इसका मंतव्य सीधे तौर पर बेलगाम हो रहे टेलीविजन चैनलों की मंशा और नई स्थापित की जा रही संस्कृति और मूल्यों की ओर ध्यानाकर्षण करना ही है जो दबे स्वर में भारतीय परपराओं और हमारी विवाह संस्था को तबाह करने पर तुले हैं। इसीलिए याद आती है स्कूल के जमाने में पढ़ी पाठ्य-पुस्तक की वह सूçक्त, जो सच बोलने के साथ खास हिदायत भी देती है। संस्कृत में सूçक्त है- सत्यम ब्रूयात प्रियम ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यम अप्रियम। अरथात सत्य बोलो, प्यारा बोलो मगर कभी अप्रिय लगने वाला सत्य न बोलो।

Saturday, July 18, 2009

ये अन्दर की बात है...

पिछले दिनों राजस्थान की विधानसभा में जो कुछ हुआ, वह जनप्रतिनिधिओं के असली चेहरे को उजागर करता है।अच्छा है इसी बहाने एक बार फिर निजी बनाम सार्वजनिक जीवन की बहस फिर छिडी है. कितनी ही उम्मीदों को लेकर जनता अपने वोट का इस्तेमाल कर इन महान प्रतिनिधिओं को विधानसभा और लोक सभा की देहलीज़ तक पहूँचाती है मगर अफसोस, हर बार उसे लगता है कि वे खुद इस्तेमाल हुयें है. और वो इमोशनल ब्लेकमेल के जरिये. कभी जात-बिरादरी तो कभी धर्मं, तो कभी क्षेत्र और इस से भी पार न पड़े तो फिर वादों की बरसात. आखिर जनता करे तो भी क्या? विश्वास करना ही पड़ता है और क्या विकल्प बचता है. यानी किसी न किसी को तो वोट करना ही है. आखिर सिस्टम में तो कोई न कोई पहूंचेगा ही. खैर, बात विधानसभा के अन्दर की है. और जब बात अन्दर की हो तो बाहर की बेताबी बढ़ जाती है. हमारे विधायक कई बार अपने जलवे दिखा चुके है, कि वे कितने काबिल, समझदार और सभ्य हैं. और सार्वजनिक शुचिता के लिए कितने गंभीर है.
पहले बात अपने अमिताभ भैया के बदतर, माफ़ कीजिये बेहतर और दमदार उत्तरप्रदेश की, आपको याद ही होगा की विधायकों ने एक दुसरे के साथ न केवल हाथापाई की वरन हिंसक वारदात भी की. सब ने कहा कि सदन की गरिमा लज्जित हुई. लेकिन विधायकों को कहीं से नहीं लगा कि कुछ तो ऐसा हुआ है कि जो सिर को झुका देता है. बात आई गई हो गई. अब बात राजस्थान की विधानसभा की. पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ़ से बेशर्मी और बेहयाई का बेहतरीन मुजाहिरा.चरित्र को लेकर लांछन। ये कितने सही हैं या गलत, ये तो बाद की बात है, पर हैं गंभीर और निंदनीय. इसमें शराब पीने, पीने के बाद मदहोश होने, और मदहोशी में होने वाली मस्ती की तरफ भी इशारा है. एक पूर्व महिला मुख्यमंत्री को निशाने पर लेकर कहा गया- आफ्टर ८ पी एम् नो सी एम्. इसके बाद तो बस आरोप और प्रत्यारोप का दौर. इसका भावः यह कि ८ बजे बाद मुख्यमंत्री नाम की कोई चीज़ नहीं होती थी. दूसरा आरोप यूएस, लन्दन, देहरादून में की जाने वाली मौज मस्ती को लेकर. यानी वसुंधरा राजे जो घोषित रूप में तलाकशुदा है, उन पर इस तरह की टिप्पणी सीधे तौर पर चरित्र हनन का मामला. ऐसा कहने की देर थी मोहतरमा भी बरसी एक विधायक पर की पत्नी की शान में कसीदे पढ़कर. याद आता हैं अमेरिका के राष्ट्रपति क्लिंटन की, मोनिका की, उनके अमर प्रेम की. क्लिंटन को आखिर खून के आँसू रोना पड़ा. सवाल है कि सार्वजनिक जीवन में छोटे और बड़े ओहदों पर बैठे लोगों का जीवन कुछ अंशों में भी निजी हो सकता है या नहीं? वैसे मेरे दिल की बात तो यह है कि जब आखों का पानी ही ख़त्म हो गया है तो हया कैसी, शर्म कैसी. सब कुछ खुला खुला-सा है तो लिबास कैसा. वैसे एक और अत्याचार है, और वोह है इनके विशेषाधिकारों का. मतलब वो जहान की बात करे और जहान अपने होठों पर पट्टी बांध ले.

Monday, July 6, 2009

जरूरी हैं जज्बात

बदलावों के लिए हमें हमेंशा तैयार रहना चाहिए. और बदलाव अक्सर ख़ूबसूरत होते हैं. कई बार नहीं भी होतें मगर यही तो इक चीज़ है जो स्थाई है. अपने बारे में कई बार सोचता हूँ तो लगता है जैसे जिंदगी बदल गई है पूरी तरह. और बदली भी कुछ इस तरह से है की यकीन नहीं होता. इसी तरह की बहुत सारी चीजें हैं जो रोज़-रोज़ ज़हन में आती है और कभी दिल को गुदगुदाती हैं तो कभी जज्बाती बना देती हैं. कई बार सोचता हूँ की गर जज्बात नहीं होतें तो जिंदगी कैसी होती. जज्बात से ही बात बनती है और बनती है मुकम्मल जिंदगी. इसे जारी रखूंगा इक ब्रेक के बाद.

Wednesday, July 1, 2009

तालीम नहीं डिगि्रयां बांटते हैं हम



निजी क्षेत्र उच्च शिक्षा में अनगिनत नए पाठ्यक्रम ला रहे हैं, लेकिन सेवा से जुड़ा यह काम अब पूरी तौर पर व्यावसायिकता की गिरफ्त में आने के बाद बाकायदा धंधा बना दिया गया है। जाहिर है कि अब इसमें शराब और कुछ दूसरे किस्म का धंधा करने वाले लोग भी आ चुके हैं। एक काउण्टर से शराब बेचते हैं, तो दूसरे से शिक्षा। अच्छी जुगलबंदी है। अगर यहां केवल शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थानों की बात की जाए, तो हालिया एक घटना बहुत बेचैन करने वाली है। एक निजी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति (चांसलर) के खिलाफ धोखाधड़ी को लेकर एक छात्रा के अभिभावकों ने प्राथमिकी दर्ज करवाई। जिसके बाद से कुलाधिपति महोदय को जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया गया। शैक्षणिक व्यवस्था पर फिर एक सवालिया निशान। बीएड पाठ्यक्रम में दाखिला लेने वाली उक्त छात्रा का आरोप है कि पाठ्यक्रम की मान्यता को लेकर उन्हें अंधेरे में रखा गया और इस तरह से उसका पूरा साल दांव पर लग गया और फीस जो गई, सो अलग। आज कुछ डिगि्रयों को लेकर जो युवाओं में जुनून है, वो कुछ हद तक रोजगार की समस्या से जुड़ा है। इसलिए हर साल हजारों की संख्या में राज्य से बाहर के कुछ संस्थानों से यहां के विद्यार्थी बीएड करते रहे हैं। ये संस्थान बरसों से बड़ी तादाद में बीएड डिग्रीधारियों को तैयार करने में मोटी चांदी काट रहे हैं। इसमें खास बात ये है कि आपको वहां साल भर रुकने की कतई जरूरत नहीं है, बस सुविधा शुल्क अदा कर दीजिए। सीधे तौर पर कहा जाए तो यह डिगि्रयों को बेचने जैसा है। यही शायद वह वजह रही होगी कि राज्य सरकार ने यहां भी बड़ी संख्या में बीएड कॉलेज खोल डाले। चाहें वे शिक्षा के मानकों पर खरे नहीं उतरते हों। राज्य में शिक्षा के इतने संस्थान खुलना सुखद है लेकिन ये बात भी दिल को कचोटती है, जब हमें मालूम होता है कि इन संस्थानों में हो क्या रहा है। वास्तव में ये सारे संस्थान धीरे-धीरे खुले विश्वविद्यालय के ऑव कैम्पस सेण्टर में तब्दील हो रहे हैं, जहां पढ़ाई के अलावा सभी कुछ पूरी गंभीरता से चलता है। बस आप एक और फीस दे दीजिए, पहली दाखिला लेने की तो आप काउंसलिंग के वक्त दे चुके होते हैं और दूसरी फीस होगी आपके नियमित या बिल्कुल भी नहीं आने की। क्यों हैं न एक अच्छी बात? और फिर इन संस्थानों के पास तो पर्याप्त योग्य शिक्षक भी नहीं हैं। अब सवाल ये है कि सरकार इन खरपतवार की तरह उग आए शैक्षणिक संस्थानों की निगरानी का काम कैसे करे? मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल का बिल्कुल ताजा बयान इस सारी स्थितियों में उम्मीद तो जगाता है, जिसमें उन्होंने शैक्षणिक कदाचार को रोकने और उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों से झूठ बोलकर धन उगाही करने वाले संस्थानों पर लगाम लगाने और इसके लिए कानून बनाने का इरादा जताया। यकीनन अभी नहीं, तो कभी नहीं वाली स्थिति आ चुकी है, लिहाजा सरकार की ओर से ऐसी ठोस पहल होनी चाहिए जिसमें तंत्र की बुनियादी खामी का फायदा उठाकर शुरु होने वाले संस्थानों की समीक्षा हो, उन्हें तत्काल या तो तय मानकों और नियमों में जारी रखने की बाध्यता करें या फिर आंशिक नहीं, पूरी तरह उनकी मान्यता खारिज करें। वरना हमारे प्रदेश की डिगि्रयों की दुर्गति होते देखने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए।

Saturday, June 20, 2009

ग्लोबल लोगों का लोकल चेहरा


कथित ग्लोबल लोग अपने व्यावसायिक फायदों के इतर सोचते ही नहीं हैं, ऐसे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर परस्पर संबंध कैसे कायम रह सकते हैं? देशों की भौगोलिक रेखाएं लोगों के दिलों पर छाई हुई हैं


लगभग सौ साल पहले नस्लवाद के खिलाफ लड़ने वाले गांधी बाबा ने साठ साल पहले मरते वक्त सोचा भी नहीं होगा कि उनके देश के लोग ही इसके शिकार होंगे। लिहाजा लड़ाई जारी है। बस जगह बदल गयी है, यानी दक्षिण अफ्रीका की बजाए ऑस्ट्रेलिया। बकौल मशहूर शायर इकबाल-सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहां हमारा। मगर इन दिनों लगता है कि ये दुश्मनी कुछ ज्यादा ही हो गई है। ऑस्ट्रेलिया के बाद अब कनाडा और दूसरे देशों की बारी। वो भी पीछे क्यों रहे? जैसे इण्डियन होना एक सबसे बड़ी गाली हो गया हो। दुनियाभर में नस्ल को लेकर फçब्तयां कहीं न कहीं कसी जा रही हैं। लेकिन अब तिरंगे को चमकाने वाले और शाइनिंग इंडिया के तमगों के सच्चे हकदार भारतीयों के खिलाफ एक मुहिम के तौर पर यह सब हो रहा है। भारतीय पसोपेश में हैं कि अब तक तो यह पढ़ाई कर रहे छात्रों के साथ था, लेकिन अब अगर यह बरसों से बसे-बसाए लोगों के साथ शुरू हो गया तो क्या हो? क्योंकि अब तक तो वे वहां की नागरिकता लेकर मुयधारा में भी शामिल हो चुके हैं, वहां की संस्कृति और संस्कारों में रम चुके हैं। दरअसल कई क्षेत्रों में उन्होंने कामयाबी के झण्डे भी गाडे़ हैं, वो भी ऐसे कि हर कोई रश्क करे। यह ठीक वैसा-सा ही है कि गांव का बंसीलाल शहर के लोगों के बीच कामयाब बी एल बन जाए और लोगों की ईष्र्या का पात्र भी। आज समय बदल रहा है और इस बदलते वक्त में दुनिया में कहीं भी, किसी भी शासन व्यवस्था में, किसी को भी इस बात की इजाजत नहीं दी गई है कि वह किसी भी इंसान को उसे विशेष विशेषणों से संबोधित करे, कोई टीका-टिप्पणी करे या उसे हिकारत की नजर से देखे । एक सय समाज में रंग, जाति और नस्ल को लेकर किसी भी तरह के भेदभाव और हिंसा को स्वीकार नहीं किया जाता। लेकिन इसी सयता का आधुनिक संस्करण पढ़ाने वाले अधिकांश देशों के लोगों में जब-तब इस तरह की घटनाएं देखने को मिलती है। दुनिया के देशों की सबसे बड़ी पंचायत संयुक्त राष्ट्र भी नस्लवाद के किसी भी रूप को न केवल खारिज करता है वरन उसे लेकर कडे़ प्रावधान भी तय किए गए हैं। फिर भी यह कहीं न कहीं घट रहा है यानी कोई न कोई इस विकृत और संकीर्ण मानसिकता की वजह से अकारण अपमानित हो रहा है। नस्लवाद की जब भी बात चलती है तो हिटलर और नाजियों की चर्चा भी होती है, जिन्होंने लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया था। आपको फिजी का वाकया तो याद ही होगा, जब वहां के प्रधानमंत्री महेंद्र चौधरी को सत्ता से केवल इसलिए बेदखल किया गया कि वे भारतीय मूल के हैं। इतना ही नहीं, विधान तक हमेशा के लिए बदल दिया गया। जबकि इस तरह के लोगों के सैकड़ों उदाहरण भरे पडे़ हैं, जिन्होंने गैर मुल्कों की तरक्की में खासा योगदान दिया है और वहां के लोगों और सरकारों ने भी उन्हें पूरा समान दिया है। लेकिन अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश में मानवीय मूल्य, सद्भाव और सदाशयता पीछे छूटते जा रहे हैं। आज दुनिया में तनाव ज्यादा है आपसी रिश्तों में असुरक्षा का बीज अंकुरित हो चुका है और कमोबेश छोटी-सी भी चिंगारी बड़ी आगजनी में तब्दील होने की संभावना बढ़ गई है। बचपन में एक कहावत सुना करते थे कि थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली। इसका व्यापक अर्थ उस समय मालूम नहीं था। लेकिन अब अर्थ के साथ उसकी व्यापक व्याया भी समझ में आ रही है। विकसित देशों का दोहरा आचरण और चेहरा समय समय पर जाहिर होता रहता है, अब बे-पदाü हो रहा है। और ईमानदारी की बात तो ये भी है कि विश्वविद्यालय परिसर तो विश्व संस्कृति के प्रतिनिधि हैं। इन परिसरों पर भी अगर संकीर्ण मानसिकता का हमला हुआ तो ये शिक्षा के केंद्र अपनी मौलिकता, विश्वसनीयता और अपनी उद्देश्यपरक बुनियाद को ही तबाह कर देंगे। मानवाधिकारों के सबसे बड़े आका अमेरिका समेत हो रही अपमानित मानवता के मसले पर पूरी दुनिया की चुप्पी हैरत में डालने वाली है। कई दिनों से चल रही इन छींटाकसी और हमलों की घटनाओं के बाद भी आज तक किसी दूसरे देश ने इस पर कोई टिप्पणी करना भी मुनासिब नहीं समझा। जबकि अमरीका में आतंककारी हमला होने के तुरंत बाद ऑस्ट्रेलिया सहित पूरी दुनिया के देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने उक्त घटनाओं की तीव्र निंदा करते हुए अमेरिका को समर्थन देने की बात कही। अगर केवल भारतीयों की बात की जाए तो आज जर्मनी सहित बहुत से यूरोपीय राष्ट्र हैं, जहां इस तरह की आग पहुंच सकती है और जो लाखों लोगों की जिंदगी से सुख-चैन छीन सकती है। इतिहास गवाह है कि भारत में यहां कितने ही आक्रान्ता आए जिसमें यूनानी, शक-कुसाण, हूण, तुर्क-अफगान, तुर्क शामिल हैं। जहां तक अंग्रेजों का सवाल है तो वे व्यापारी का मुखौटा लगाकर आए थे, लेकिन बन गए शासक। पर यहां की संस्कृति ने किसी को भी दुत्कारा नहीं, बल्कि सबको यहीं पर अपने अंक में समेट लिया। भारत कभी आक्रांता नहीं रहा। कभी किसी पर हमला नहीं किया। और हजारों सालों पहले रचे गए वेदों में हमने सपूर्ण विश्व के कल्याण की कामना की। सच्चे अथोZ में हम वैश्विक रहे हैं। वैश्विक यानी समग्र विश्व का चिंतन और सोच को सहेजे हुए चलना। लेकिन पिछले कुछेक वषोZ से कॉर्पोरेट जगत के साथ ग्लोबल शब्द कुछ ज्यादा ही काम आ रहा है। आज इस वैश्वीकरण का सर्वाधिक फायदा पश्चिम और कुछ विकसित राष्ट्रों को हुआ है जो भारत को महज एक बढ़ते बाजार के तौर पर ही देखते हैं। यहां से अकूत दौलत पैदा करने वाली बहुराष्ट्रीय कपनियां अपने मूल देशों की सरकारों की ओर से हमारे ऊपर बराबर दबाव बनाती रहीं हैं। दूसरी ओर, यह ग्लोबलाइजेशन इकतरफा है, क्योंकि इसमें हमारे स्वदेशी हितों का गला घोंटा गया है। तीसरी दुनिया के प्रशिक्षित मानव संसाधन को बडे़ देशों ने हतोत्साहित ही किया है। जबकि वैश्विक व्यवस्था के मद्देनजर पूंजी के इतर भी कई दूसरे मोर्चे हैं जहां उत्तर दक्षिण के देश अपनी तकनीक, कुशल मानव संसाधन और श्रम को साझा कर बेहतर कल को बना सकते हैं। लेकिन यहां सबसे बड़ी दीवार है इन बडे़ देशों का अनुदार, अमानवीय और एकाकी नजरिया जिन्हें ये छद्म मुखौटों से ढक लेते हैं। वरना यूरोप में खेती के लिए बेपनाह सçब्सडी दी जा रही है और विकासशील देशों में विषम भौगोलिक परिस्थितियों, गरीबी, अपर्याप्त साधन और अन्य कारणों से लोग बेकार हो रहे हैं। अपने व्यावसायिक फायदों से इतर हमारे ग्लोबल भाइयों की सोच ही नहीं, इसीलिए उन्होंने अपनी जात और औकात दोनों दिखानी शुरू कर दी है। ऐसे माहौल में किस तरह से अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में सांस्कृतिक और दूसरे संबंध कायम रह सकते हैं। लगता है कि दुनिया के देशों के बीच जो भौगोलिक रेखा खींची गई है, वह न केवल जमीनी है, बल्कि लोगों के दिलों को भी वह कहीं गहरे तक उतर गई है। आज बात केवल ऑस्ट्रेलिया और कनाडा की नहीं है, बल्कि यह वैश्विक मुद्दा बन चुका है। यह किसी भी दूसरी समस्या से कमतर नहीं है। जरूरत है एक साझा मंच पर इस भयानक अमानवीय सोच से लड़ने और इससे पैदा हो रही दूसरी समस्याओं के निदान की। और एक सच और भी है, जो नश्तर की तरह चुभ रहा है। हमारे यहां अपने घर में क्या कुछ नहीं हो रहा है? अगर एक चक्कर देश का लगा लें तो हकीकत सामने आ जाएगी। एक तरफ देश के बाशिंदे जानवरों की तरह उत्तर पूर्व में गोलियों से भूने जा रहे हैं, तो दूसरी ओर कॉस्मोपोलिटन शहर मुंबई में रोज सरेराह पिट रहे हैं। क्या कसूर है उनका? कि वे किसी क्षेत्र विशेष में पैदा हुए हैं या उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से अपना अलग मुकाम बनाया है? संसाधनों पर हक की इस लड़ाई ने जहां देश प्रेम को जता दिया है, वहीं स्थानीय निहिताथोंü के चलते बडे़ लोगों का छोटापन भी सामने आ गया है।

नमस्कार

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