Wednesday, June 2, 2010

जवां होते सपनों का मर जाना!



जातीय आधार पर राजनीति और सरकारी नौकरियों में मिल रहे आरक्षण का परिणाम है कि नाकाबिल लोगों की जमात सरकारी पदों पर काबिज हो रही है और उच्च राजनीतिक पायदानों पर अक्षम नेतृत्व की बढ़ोत्तरी हो रही है। तो अब सवाल यह है कि क्या इन नाकाबिलों और अक्षम लोगों के भरोसे सौ करोड़ से ज्यादा लोगों के इस देश की तकदीर छोड़ दी जायेगी?


जब भी शैक्षणिक परिसरों में जाता हूं तो देश की तैयार हो रही अगली पीढ़ी में कहीं न कहीं एक अनदेखा और अनजाना खौफ महसूस करता हूं। यह अनजाना खौफ और कुछ नहीं, देश की जवां होती नस्ल के अन्दर पैदा हो रही कुण्ठा और अवसाद का ही एक रूप है। यह दुर्भाग्य है कि एक तरफ हम तरक्की के पायदानों पर बढ़ते हुये दुनिया के साथ कदमताल कर रहे हैं और अग्रिम पंक्ति में अपने आप को खड़ा करने की जद्दोजहद में लगे हुये हैं, और दूसरी ओर जिनको हम देश का भविष्य करार दे रहे हैं, उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को आरक्षण के नासूर के चलते बरबाद करने पर तुले हुये हैं।
संविधान निर्माताओं ने जिस तात्कालिक प्रयोजन और भावना से आरक्षण का प्रावधान कुछ सीमित अवधि तक उन लोगों के लिए किया था जो वक्त की रफ्तार में काफी पिछड़ गये और राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल नहीं हो पाये। लेकिन हम और आप जानते हैं कि अब हालात बदल गये हैं और वे प्रावधान हमारी सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था के लिए एक चुनौती बन गये हंै।
यह दीगर बात है कि संविधान निर्माताओं ने बड़ी खूबसूरती से उन सभी प्रत्याशाओं का समावेश संविधान में किया है जो मानवीय गरिमा को बनाये रखने के लिए न केवल जरूरी है, बल्कि सहायक भी है। सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समानता से युक्त समाज की रचना किसी भी देश के विकास और उसमें कायम राजव्यवस्था की सफलता का पैमाना हो सकता है। लेकिन आजादी के साठ सालों के बाद भी देश में गैर बराबरी चरम पर है। इस गैर बराबरी को न केवल जातीय और क्षेत्रीय आधार पर देखा जा सकता है बल्कि लोगों के जहन में यह अन्दर तक उतर गया है और शायद यहीं वजह है कि देश में बिखराव, अलगाव और वैमनस्य तेज रफ्तार से बढ़ रहा है।
जातीय आधार पर राजनीति और सरकारी नौकरियों में मिल रहे आरक्षण का परिणाम है कि नाकाबिल लोगों की जमात सरकारी पदों पर काबिज हो रही है और उच्च राजनीतिक पायदानों पर अक्षम नेतृत्व की बढ़ोत्तरी हो रही है। तो अब सवाल यह है कि क्या इन नाकाबिलों और अक्षम लोगों के भरोसे सौ करोड़ से ज्यादा लोगों के इस देश की तकदीर छोड़ दी जायेगी? कदाचित यही हमारी नियती है कि इस व्यवस्था के खिलाफ चल रही लड़ाई में किसी की भी जीत हो, लेकिन हमारे युवा सपनों का कत्ल तय है। इसीलिये यही वो वक्त है जब इस गैर बराबरी को खत्म करने की दिशा में हम एक कारगर कदम बढ़ाये। सत्ता के गलियारों में इस व्यवस्था को लेकर यथास्थितिवाद की जो तस्वीर बन रही है उसमें लाजिम है कि वक्त रहते कुछ ठोस कार्यवाही की जाये, वरना चमकते हुये भारत की तस्वीर बदरंग हो जायेगी।

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