शासन में शुचिता महज एक नारा नहीं होना चाहिए। वह अमल में आए और दिखे भी। तभी हम प्रदेश में खुशियाली ला सकते हैं।
हाल ही नई दिल्ली में आठवें अप्रवासी भारतीय सम्मेलन का आयोजन हुआ। सम्मेलन में भाग ले रहे एक अप्रवासी प्रतिनिधि की टिप्पणी ने खासी सुर्खियां बंटोरी, जिसने राजस्थान के प्रशासन और उनके सलूक को लेकर कई सवाल खड़े कर दिए। पिछले कुछ बरसों से दूर देशों में रह रहे भारतवंशियों को अपनी जड़ों से जोडऩे का जो जतन चल रहा था, उसमें इस तरह के भ्रष्टाचार के आरोप अवरोध ही पैदा करेंगे। देश के दो-तीन राज्यों को छोड़ दें, तो निवेश को लेकर अप्रवासियों के उत्साह में किसी तरह का इजाफा होने का तो मतलब ही नहीं। यहां बात केवल राजस्थान के कर्मवीरों की, जो दुनिया के कौने-कौने में ऐसे मुकाम पर पहुंचे, जहां से उनसे उम्मीदें की जा रही हैं कि वे विकास से महरूम इस धरती को अपने स्नेह संबल से सरसब्ज करदें। और यह वाजिब भी है। इसी बहाने इक घटना याद हो आई। मेरे कस्बे के नामी-गिरामी एक व्यक्ति ने मुंबई से नगरपालिका के तत्कालीन चेयरमैन को फोन कर अधीनस्थ अदालत और पशु चिकित्सालय, जो दोनों एक ही परिसर में साथ चलते हैं, के पास पानी और कीचड़ से निजात पाने के लिए एक पार्क विकसित करने की इच्छा प्रकट की। और इसके लिए पूरी धनराशि वो स्वयं वहन करना चाहते थे। लेकिन उनकी एक ही शर्त थी कि पैसा कितना भी लगे, उनके प्रतिनिधि की देखरेख में ही खर्च होगा। जबकि चेयरमैन पैसा अपने पास लेना चाहता था। मंशा जाहिर थी। नतीजतन आज भी उस परिसर के बाहर का मंजर नहीं बदला। ये केवल एक छोटी-सी मिसाल है। हमारे विकास की गाड़ी महज इसीलिए रुकी हुई है। पियन से लेकर प्रिंसीपल सेक्रेटरी और बड़े हाकिमों तक पूरी व्यवस्था में व्याप रहे लोभ के चरित्र को खत्म करने की दरकार है, ताकि भ्रष्टाचार के भंवर में फंसे विकास के चक्के को निकालकर उसे गति दी जा सके।
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