Saturday, February 6, 2010

असुरक्षा के तंत्र में जीता गण



राजनीतिक सम्प्रभुता, आर्थिक स्वायत्तता और सांस्कृतिक अस्मिता के साथ हर इनसान के लिए सुरक्षित और गरिमामय जीवन सुनिश्चित करने की चुनौती से राष्ट्र रू ब रू है।


राजनीतिक दलों के चरित्र और उनकी कार्यशैली को देखते हुए लोग उसे दल-दल तक की संज्ञा दे देते हैं। पर पहली शर्त के रूप में लोकतंत्र के लिए राजनीतिक दल ठीक उसी प्रकार होते हैं, जिस तरह शरीर में दौड़ता लहू। दल जनमत तैयार करने के साथलोक कल्याण के लिए नीति-निमार्ण के लिए सरकार के तंत्र को प्रेरित भी करते हैं और दबाव भी बनाते हैं। लेकिन पढ़ी-लिखी और जागरुक जनता इन दलों की सदस्यता से परहेज ही करती है। जो सदस्य बनते भी हैं तो वे सभी इसके लाभ-हानि का गणित देखकर ही। सभी दल घोषित रूप में अपना सदस्यता अभियान चलाते हैं लेकिन इस तरह के अभियानों को देखते लगता है कि जितने लोगों को रिकॉर्ड में सदस्य बतौर दिखाया जाता है, उनकी भूमिका व्यावहारिक रूप में नगण्य ही रहती है। लाखों की तादाद में आंकडों में दर्ज ये सदस्य केवल संख्या बल दर्शाने और कई बार तो महज औपचारिकता पूरी करने के लिए काम में आते हैं। हाल ही एक ब्रोकिंग हाउस में कार्यरत मेरे मित्र ने किसी राजनीतिक दल का प्राथमिक सदस्य बनने की इच्छा जाहिर की। मुझे कुछ हैरत हुई। मेरे चेहरे के भावों को पढ़कर उसने कहा कि जिस दल की सदस्यता मैं लेना चाहता हूं, वहां से उसके हर सदस्य को किसी मुसीबत या बुरे वक्त में सहायता मिलेगी। किसी अनहोनी के वक्त, तुरंत निकटवर्ती थाने में आपके पक्ष में पार्टी दफ्तर से फोन जाएगा। यानी अब पार्टी दफ्तर की हैल्पलाइन नम्बरों के जरिए लोगों की तकलीफों का निस्तारण। बहुत अच्छी बात है, अगर ऐसा हो पाता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू बहुत खतरनाक भी है। कोई भी राजनीतिक दल लोगों में उनकी सुरक्षा के मुद्दे के नाम पर सदस्यता करता है, तो यह चिंता का विषय है। पिछली कुछ आतंकी घटनाओं को छोड़ भी दें, तो भी रोजमर्रा की भागदौड़ की जिंदगी में व्यक्ति की सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण विषय के रूप में उभर कर आया है। हो सकता है कि जिस तरह शिक्षा के लिए सरकार की ओर से दो प्रतिशत अधिभार लगाया गया है, उसी तरह आने वाले समय में सुरक्षा अधिभार भी वसूला जाए। खैर, बात सुरक्षा की है, जिसके लिए राज्य प्रतिबद्ध हैं, लेकिन राजनीतिक हित साधने के लिए हो रहे इस तरह के सदस्यता अभियान बेमानी भी हैं और अलोकतांत्रिक भी।




संक्रमणकाल से गुजरता गणतंत्र धीरे-धीरे परिपक्व हो रहा है। लोगों में राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षणिक जाग्रति का दौर जारी है। दलों की तरह ही सत्ता के केंद्रों में नेतृत्व परिवर्तन चल रहा है। जनता साफ-सुथरी छवि के लोगों को आगे ला रही है। और हर मोर्चे पर अपनी भागीदारी निभा रही है। पर अब भी एक बड़ी संख्या में लोग बुनियादी आवश्यकताओं से भी महरूम हैं। कितने ही लोग राष्ट्र की मुख्यधारा में नहीं आ पाए हैं। साथ ही इण्डिया और भारत के बीच की खाई को पाटने की भी प्रबल जरूरत है। यानी सामाजिक विषमता और गैर बराबरी को हर स्तर पर खत्म करने की दरकार है।
प्रोफेसर सतीश शास्त्री
जाने-माने संविधानविद्

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