Saturday, July 18, 2009

ये अन्दर की बात है...

पिछले दिनों राजस्थान की विधानसभा में जो कुछ हुआ, वह जनप्रतिनिधिओं के असली चेहरे को उजागर करता है।अच्छा है इसी बहाने एक बार फिर निजी बनाम सार्वजनिक जीवन की बहस फिर छिडी है. कितनी ही उम्मीदों को लेकर जनता अपने वोट का इस्तेमाल कर इन महान प्रतिनिधिओं को विधानसभा और लोक सभा की देहलीज़ तक पहूँचाती है मगर अफसोस, हर बार उसे लगता है कि वे खुद इस्तेमाल हुयें है. और वो इमोशनल ब्लेकमेल के जरिये. कभी जात-बिरादरी तो कभी धर्मं, तो कभी क्षेत्र और इस से भी पार न पड़े तो फिर वादों की बरसात. आखिर जनता करे तो भी क्या? विश्वास करना ही पड़ता है और क्या विकल्प बचता है. यानी किसी न किसी को तो वोट करना ही है. आखिर सिस्टम में तो कोई न कोई पहूंचेगा ही. खैर, बात विधानसभा के अन्दर की है. और जब बात अन्दर की हो तो बाहर की बेताबी बढ़ जाती है. हमारे विधायक कई बार अपने जलवे दिखा चुके है, कि वे कितने काबिल, समझदार और सभ्य हैं. और सार्वजनिक शुचिता के लिए कितने गंभीर है.
पहले बात अपने अमिताभ भैया के बदतर, माफ़ कीजिये बेहतर और दमदार उत्तरप्रदेश की, आपको याद ही होगा की विधायकों ने एक दुसरे के साथ न केवल हाथापाई की वरन हिंसक वारदात भी की. सब ने कहा कि सदन की गरिमा लज्जित हुई. लेकिन विधायकों को कहीं से नहीं लगा कि कुछ तो ऐसा हुआ है कि जो सिर को झुका देता है. बात आई गई हो गई. अब बात राजस्थान की विधानसभा की. पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ़ से बेशर्मी और बेहयाई का बेहतरीन मुजाहिरा.चरित्र को लेकर लांछन। ये कितने सही हैं या गलत, ये तो बाद की बात है, पर हैं गंभीर और निंदनीय. इसमें शराब पीने, पीने के बाद मदहोश होने, और मदहोशी में होने वाली मस्ती की तरफ भी इशारा है. एक पूर्व महिला मुख्यमंत्री को निशाने पर लेकर कहा गया- आफ्टर ८ पी एम् नो सी एम्. इसके बाद तो बस आरोप और प्रत्यारोप का दौर. इसका भावः यह कि ८ बजे बाद मुख्यमंत्री नाम की कोई चीज़ नहीं होती थी. दूसरा आरोप यूएस, लन्दन, देहरादून में की जाने वाली मौज मस्ती को लेकर. यानी वसुंधरा राजे जो घोषित रूप में तलाकशुदा है, उन पर इस तरह की टिप्पणी सीधे तौर पर चरित्र हनन का मामला. ऐसा कहने की देर थी मोहतरमा भी बरसी एक विधायक पर की पत्नी की शान में कसीदे पढ़कर. याद आता हैं अमेरिका के राष्ट्रपति क्लिंटन की, मोनिका की, उनके अमर प्रेम की. क्लिंटन को आखिर खून के आँसू रोना पड़ा. सवाल है कि सार्वजनिक जीवन में छोटे और बड़े ओहदों पर बैठे लोगों का जीवन कुछ अंशों में भी निजी हो सकता है या नहीं? वैसे मेरे दिल की बात तो यह है कि जब आखों का पानी ही ख़त्म हो गया है तो हया कैसी, शर्म कैसी. सब कुछ खुला खुला-सा है तो लिबास कैसा. वैसे एक और अत्याचार है, और वोह है इनके विशेषाधिकारों का. मतलब वो जहान की बात करे और जहान अपने होठों पर पट्टी बांध ले.

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